घुटी घुटी थी सर्दियाँ , रुकी रुकी थी सिसकियाँ
बुने थे हमने स्वपन जब , कुल्लड में ले के चुस्कियां
है याद मुझको आज भी , वो उसका बाल खोलना
आँखों से मुझको तोलना , फिर पुतलियों से बोलना ,
जब में देखता था टक टकी , संभलती थी चुन्नियाँ
है याद उसकी कपकपी , में पास आता था जभी
वो दर्द दे के जाती थी , वो मारती थी कोहनियाँ
हूँ देखता ये देख कर , उधर न फिर से देखना
सखी सुने या न सुने , वो खुद से कुछ भी बोलना
ऊँगली से लट टटोलना , पेरों से फर्श कुरेदना
बिना वजह रूमाल पे , गांठ मार कर के खोलना
वो एक थी हज़ार में , थी छेडती बाज़ार में ,
मुझ पे थी गेंद फेंकती , जब खेलती थी सतोलियाँ ,
घुटी घुटी थी सर्दियाँ , रुकी रुकी थी सिसकियाँ
बुने थे हमने स्वपन जब , कुल्लड में ले के चुस्कियां
पनप रही जब प्रीत थी , तब जिन्दगी में शीत थी
सघर्ष स्वर नेपथ्य था, वो जैसे प्रेम गीत थी ,
मरुस्थल के ताप में , वो आती थी बन के कहकशां
में फसा रहा था द्वन्द में , भविष्य के प्रबंध में
वर्तमान गुजर गया और खो गयी वो धुंध में
निशब्द प्रीत के प्रतिधवनी , है किस से पलट के आ रही
है कौन याद कर रहा मुझे , क्यों आ रही हैं हिचकियाँ
घुटी घुटी थी सर्दियाँ , रुकी रुकी थी सिसकियाँ
बुने थे हमने स्वपन जब , कुल्लड में ले के चुस्कियां
photo credit :Buzzom