वो ही प्रसाद की कामायनी , वो ही बच्चन की मधुशाला
वो ही दरवेश का मदमस्त नर्त्य , वो ही है रूमी का प्याला .
वो ही सूरज की उषण किरण , वो ही बरखा का घन काला
वो ही है पथिक की म्रगत्रष्णा , और उसके परौं का छाला
वो है मन की वो कस्तूरी , जो व्याकुल मुझे कर जाती है
है क्षतिज पार जो स्वपन लोक , वो उसकी कथा सुनाती है
मेरे मन की इस सीपी में , वो स्वाति बूँद बन आती है
अब बूँद बन रही है मोती , अब मुझको कुछ वर्ष तड़पना है
कभी नींद नहीं टूटे जिसमे , देखा मैंने वो सपना है
है स्वप्न सृजन कुछ करने का , जिसका पहले अस्तित्व ना हो
जो खुद पहचान घड़े अपनी , जिसमे " कर्ता " का भी व्यक्तित्व हो
पर देख स्वप्न के रस्ते में , कितने कंकाल लटकते हैं
जो हैं निद्रा से जाग चुके , वो स्वप्न द्रष्टा भटकते हैं .
आगे ना जाने देते मुझे, वो मिल कर मुझको खीच रहे.
है चकित मेरे दुसाहस पर , निज कायरता पे खीझ रहे
है द्वंध हो रहा दोनों में , मेरी इच्छा , उनका अनुभव
देखें जीते रचना मेरी , या हो विजयी उनका भवितव
कस्तूरी मुझ से कहती है , ना विचलित हो कोलाहल से
जगती ने तेरे पथ कंटक , सीचे "अनुभव " हाला हल से .
ये सब जो तेरे शुभ चिन्तक , जो बता रहे हैं जग की प्रथा
है ज्ञान नहीं , है सत्य नहीं , वो है बस उनकी आत्म कथा
वो अहंकार के घुड़सवार , वो सुर सरिता में तर ना सके
था बंद उनका ह्रदय कलश , जीवन का रस वो भर ना सके .
तेरा साथी इस पथ पर , तेरा प्रेम है , तेरा समर्पण है
जो खीच रहा हम दोनों को , ये वो अनजाना आकर्षण है .
कस्तूरी कहती " ओ सर्जक ! तू संग मेरे ही रमण करना ,
में देखूं राह क्षितिज पे तेरी , तू आके मेरा वरण करना "
में चला जा रहा क्षितिज और , में आपनी धुन में मतवाला
ना चुभते मुझको पथ कंटक , ना दुखता पैरों का छाला