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Sunday, April 19, 2009

स्पंदन


 
जीवन से सकल सुहास गए , जब से सुखा ये मन चन्दन.
अधरों ने हँसना सीख लिया , जब थके नयन कर के क्रंदन  
सूने घर की तन्हाई में सुनते हम अपना ह्रदय स्पंदन 

मित्र हमें समझाते हैं , करतें हैं वो सब लाख जतन 
नाना विधि बहलाते हैं हमको ,सुनते हैं मेरे कटुक वचन
हो के निढाल गिर जाते हैं , मिटती न ललाट से एक शिकन  

में उनके तर्क समझता हूँ , कहता हूँ "सुन ओ मेरे मन ,
यादो की चार दिवारी से , चल दोनों करते बहिर्गमन ,
प्रक्रति के कलरव से भर दें , आ अपने जीवन का सूनापन"  

कब ज्ञान ,सहायक होता है , ये सब हैं झूठे आश्वासन
चाहे वो अधम मनुष्य रहे , चाहे हो कर्ता श्रष्टि सर्जन.
शब्दों से काट नहीं सकते , उलझे इतने हैं ये बंधन .
 
गांडीव उठा , तज बुद्धि ज्ञान , सब भूल श्रृष्टि में अपना स्थान
स्वर्ण मृग के पीछे दौडे जाते , देखो कैसे वो रघु नंदन


Pic courtesy : Prof. Frances Pritchett, Univ of Columbia .(Link)